नई दिल्ली. क्या दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल अपने पद से इस्तीफा नहीं देकर नैतिकता का नया मानदंड स्थापित करना चाहते हैं? जन सामान्य के मध्य चर्चा का यही विषय है. वैसे जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों का जेल जाना कोई अचरज की बात हो, ऐसा भी नहीं है. भारतीय लोकतंत्र में भ्रष्टाचार का बोलबाला है और लोक प्रतिनिधि जेल जाते ही रहते हैं. कई-कई माननीय तो इसे शान की बात भी मानते हैं. पर जेल से सरकार चलाने का दृष्टांत भारतीय राजनीति में कम ही मिलता है.
उन वादों का क्या होगा, जिनको लेकर अरविंद केजरीवाल ने ‘स्वच्छ’ राजनीति की डगर दिखाई थी. कभी भ्रष्टाचार को खत्म करने की दृढ़ प्रतिज्ञा लेकर इंडिया अगेंस्ट करप्शन का जन्म हुआ था. जहां से एक वैकल्पिक राजनीति की उम्मीद देश भर में उठी थी. 2011-12 में अन्ना हजारे के नेतृत्व में उठा जन-ज्वार कोई सामान्य घटना नहीं थी. इस आंदोलन से निकली आग की तपिश में शीला दीक्षित की सरकार जलकर भस्म हो गई. यही नहीं भ्रष्ट मंत्रियों से भरी यूपीए-2 सरकार को तो इस आंदोलन ने संभलने का मौका भी नहीं दिया. कांग्रेस के हाथ से केंद्र गया. कांग्रेस के हाथ से दिल्ली गई. कांग्रेस के हाथों से कालांतर में पंजाब की कमान भी चली गई.
एक-एक करके मंत्रियों की शामत आई
आम आदमी पार्टी एक बदलाव की बयार के साथ सत्ता में आई थी. मगर एक-एक करके “बदलाव” लाने वाले के चेहरे मलिन होते गए. ऐसा प्रचारित किया गया था कि आम आदमी पार्टी के नेता भ्रष्ट हो ही नहीं सकते. लेकिन एक-एक करके मंत्री फंसते गए. मनीष सिसोदिया और संजय सिंह जैसे कद्दावर नेताओं को तो एक साल से जमानत नसीब नहीं हुई. मनीष ने तो सरकारी स्कूलों के चेहरे ही बदल दिए. दिल्ली के सरकारी विद्यालयों की तारीफ में विदेश अखबारों में भी कसीदे पढ़े गए. याद आया, आप के मंत्री रहे सत्येंद्र जैन तो अब जेल में पुराने हो चुके हैं, उनकी अब चर्चा भी नहीं होती.
अरविंद केजरीवाल का जेल जाना क्या वैकल्पिक राजनीति का अंत है?
मनीष और संजय सिंह तो शराब के मामले में बुरे फंसे ही लेकिन अरविंद केजरीवाल का उसी शराब घोटाले में जेल जाना, वैकल्पिक राजनीति की सोच को दशकों धकेल देने वाला वाकया साबित हुआ. वैकल्पिक राजनीति का मतलब उस राजनीति से था, जो बीजेपी और कांग्रेस विहीन राजनीतिक विकल्प की बात करता था. इन्हीं वादों को सामने रखकर पंजाब में आम आदमी पार्टी को अप्रत्याशित जीत मिली. यहां भी जनता ने स्थापित पार्टियों, कांग्रेस, अकाली दल और बीजेपी को तकरीबन खारिज ही कर दिया. लेकिन लोकसभा चुनाव से पहले केजरीवाल ने कांग्रेस के साथ हाथ मिलाकर अपनी ही सोच को तिलांजलि दे दी.
केजरीवाल के सामने क्या विकल्प है?
अब यक्ष प्रश्न यही है कि केजरीवाल आगे क्या करेंगे. क्या सिर्फ केंद्र की एजेंसियों के सर पर ठीकरा फोड़ने से शराब घोटाला की आंच कम हो जायेगी? फिलहाल ऐसा नहीं लगता. प्रवर्तन निदेशालय ने केजरीवाल को कानून के सामने हाजिर होने का काफी मौका दिया. केजरीवाल आरोपों को हल्के में लेते रहे. ईडी मय सबूतों के साथ जब हाईकोर्ट पहुंची तो केजरीवाल के तर्क धरे रह गए. सुप्रीम कोर्ट से केजरीवाल ने जमानत याचिका खुद वापस कर ली. जेल के अंदर रहकर, केजरीवाल भी जानते हैं. लंबे अरसे तक सरकार नहीं चलाई जा सकती है. केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार है लेकिन विपक्ष पहले से ज्यादा कमजोर दिख रहा है. ‘इंडिया’ के नाम पर बना विपक्षी गठबंधन छिन्न-भिन्न हो गया है. केजरीवाल के नाम पर सभी इकट्ठे हो जाएंगे, इसकी उम्मीद क्षीण है. केजरीवाल ने अपने नीचे दूसरी श्रेणी के नेताओं को विकसित होने का मौका नहीं दिया है, ऐसे में किसी ‘अपनों’ के हाथ में सत्ता देनी इनकी मजबूरी होगी.
जनप्रतिनिधि अब बचकर रहें
सांसदों, विधायकों और मंत्रियों को अब डरना चाहिए क्योंकि सत्ता में रहकर करप्शन करना अब खतरे से खाली नहीं है. पीएमएलए एक्ट के प्रावधान भी कुछ ऐसे हैं कि जन प्रतिनिधियों को बेल मिलना लगभग असम्भव हो जाता है. राज्य सरकारों के लिए शराब बेचकर चुनावी फंड इकट्ठा करना, शराब व्यापारियों से कमीशन लेना एक स्थापित परंपरा हो गई है. केजरीवाल के राजनीतिक गुरु रहे अन्ना हजारे ने केजरीवाल को शराब के व्यापार से सावधान भी किया था लेकिन महत्वाकांक्षा से लबरेज केजरीवाल ने अपने शुभेच्छुओं को सुनना कब का बंद कर दिया था. शराब का धंधा कुछ लोगों को रास आता है, ज्यादातर इसमें बर्बाद होते हैं.
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FIRST PUBLISHED : March 24, 2024, 18:52 IST